Home > Work > गोदान [Godaan]
101 " जब तक नदी बाढ़ पर थी उसके गंदले, तेज, फेनिल प्रवाह में प्रकाश की किरणें बिखरकर रह जाती थीं। अब प्रवाह स्थिर और शांत हो गया था और रश्मियाँ उसकी तह तक पहुँच रही थीं। "
― Munshi Premchand , गोदान [Godaan]
102 " यह सब मैं खूब समझता हूँ, मित्रवर! लेकिन जीवन की ट्रैजेडी और इसके सिवा क्या है कि आपकी आत्मा जो काम करना नहीं चाहती, वही आपको करना पड़े। "
103 " पूँजी और शिक्षा, जिसे मैं पूँजी ही का एक रूप समझता हूँ इनका किला जितनी जल्द टूट जाय, उतना ही अच्छा है। "
104 " सद्भावना करते हुए भी स्वार्थ नहीं छोडू सकता "
105 " मगर यह भी मालूम रहे कि हर-एक क़ौम में एक ऐसी चीज़ होती है, जिसे उसकी आत्मा कह सकते हैं। "
106 " आपकी ज़बान में जितनी बुद्धि है, काश उसकी आधी भी मस्तिष्क में होती! खेद यही है कि सब कुछ समझते हुए भी आप अपने विचारों को व्यवहार में नहीं लाते। "
107 " रण-क्षेत्र में जानेवाला रथ भी तो बिना तेल के नहीं चल सकता। उनके जीवन में थोड़ी-सी रसिकता लाज़िमा थी। "
108 " धन को आप किसी अन्याय से बराबर फैला सकते हैं। लेकिन बुद्धि को, चरित्र को, और रूप को, प्रतिभा को और बल को बराबर फैलाना तो आपकी शक्ति के बाहर है। "
109 " बुद्धि अगर स्वार्थ से म़ुक्त हो, तो हमें उसकी प्रभुता मानने में कोई आपत्ति नहीं। समाजवाद का यही आदर्श है। "
110 " बुद्धि के हाथ में अधिकार भी देना चाहते हैं, सम्मान भी, नेत्तृत्व भी; लेकिन संपत्ति किसी तरह नहीं। बुद्धि का अधिकार और सम्मान व्यक्ति के साथ चला जाता है, लेकिन उसकी संपत्ति विष बोने के लिए, उसके बाद और भी प्रबल हो जाती है। "
111 " मकोय, कंघी, सहदेईया, कुकरौंधे, धतूरे के बीज, मदार के फूल, करजे, घमची आदि। "
112 " ख़ुर्शेद गोरे-चिट्टे आदमी थे, भूरी-भूरी मूँछें, नीली आखें, दोहरी देह, चाँद के बाल सफ़ाचट। छकलिया अचकन और चूड़ीदार पाजामा पहने थे। ऊपर से हैट लगा लेते "
113 " भला आदमी वही है, जो दूसरों की बहू-बेटी को अपनी बहू-बेटी समझे। जो दुष्ट किसी मेहरिया की ओर ताके, उसे गोली मार देनी चाहिए। "
114 " छोटी नदी को उमड़ते देर नहीं लगती; "
115 " द्वेष का मायाजाल बड़ी-बड़ी मछलियों को ही फँसाता है। छोटी मछलियाँ या तो उसमें फँसती ही नहीं या तुरंत निकल जाती हैं। उनके लिए वह घातक जाल क्रीड़ा की वस्तु है, भय की नहीं। "
116 " पीते ही चोला तर हो जाता है, आँखें खुल जाती हैं। ख़मीरा तमाखू लाया है, ख़ास बिसवाँ की! "
117 " उनके "
118 " मातृत्व महान् गौरव का पद है देवीजी! और गौरव के पद में कहाँ अपमान और धिक्कार और तिरस्कार नहीं मिला? "
119 " आदमी को अपने संगों के मुँह से अपनी भलाई-बुराई सुनने की जितनी लालसा होती है, बाहरवालों के मुँह से नहीं। "
120 " वही कोमल हृदय बालिका नज़र आयी, जिसने पच्चीस साल पहले उसके जीवन में प्रवेश किया था। उस आलिंगन में कितना अथाह वात्सल्य था, जो सारे कलंक, सारी बाधाओं और सारी मूलबद्ध परंपराओं को अपने अंदर समेटे लेता था। "